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जाति ही पूछो जन की

bkvas
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आजकल जिधर देखिए उधर  जाति चर्चा का विषय बनी हुई है। इसे लेकर बहस का दौर जारी है। खेमेबंदी भी खूब हुई, पक्ष- विपक्ष में तलवारे भांजते नजर आए लोग। अन्ततः भारत सरकार ने भी इस सच्चाई को स्वीकार किया और इस बात पर सहमत हो गई कि इस बार जनगणना जाति आधारित होगी। लोकसभा में मानसून सत्र के अंतिम दिन केंद्रीय वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी ने घोषणा की कि जाति जनगणना की मंजूरी अब औपचारिकता मात्र है, अगली बैठक में इसे  मंजूरी मिल जाएगी। हर बार जैसा होता है, वहीं इस बार भी हुआ। सरकार को सच्चाई देर से समझ में आती है। बातें और समस्याएं यदि समय से समझ में आने लगें तो देश की ढेर सारी समस्याओं का समाधान हो जाए। बहरहाल में कहना यह चाहता हूं कि जाति भारतीय समाज की सच्चाई है। इससे इनकार नहीं किया जा सकता। जति को अनदेखी करना शुतुर्मुग की तरह खतरे से बचने के लिए रेत में सिर छिपाने जैसा है। दरअसल जाति वह वह वट वृक्ष है जिसकी छाया तले भारतीय संस्कृति पल्लवित और पुष्पित हुई है। विश्व की अनेक प्राचीन संस्कृतियां मिट गईं, भारतीय संस्कृति जीवित जागृत है तो उसका एक प्रमुख कारण इसकी सामाजिक व्यवस्था और जातीय संरचना भी है।  कालांतर में छुआछूत, ऊंच-नीच और अगड़े पिछड़े जैसी विषबेलियों ने इस वट वृक्ष को आच्छादित कर लिया। आज आवश्यकता इनविष बेलियों को हटाने की है, न की समूचे वटवृक्ष को ही काटने की। ऊंच-नीच और छूआछूत  जैसी अमानवीय बातों को हटा दिया जाए तो हमारी जातीय संरचना बेमिसाल है।

      यह एक बंटवारा है जो सामाजिक व्यवस्था को मजबूती प्रदान करता है। इसकी तुलना आप एक कार्यालय की कार्यप्रणाली से कर सकते हैं, जहां अधिकारियों का वर्ग होता है। इनमें भी कई श्रेणियां होती है। बैंक का उदाहरण लें तो कटैगरी वन, टू, थ्री, फोर, ———- का अधिकारी। इसके बाद होते हैं उनके सहायक, इसके बाद एवार्ड स्टाफ जिसमें लिपिक आदि आते हैं। इसके बाद आते है चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी। यह एक कार्यविभाजन हुआ। इस स्वरूप हर विभाग और हर देश में मिल जाएगा। भारत में विभिन्न कारणों से इसका स्वरूप विकृत हो गया है। इसे ठीक करने की जरूरत है। काफी कुछ बदला भी है। आगे इसमें दिन बदिन और बदलाव आएगा। राज्य को तो सभी को समान दृष्टि से देखना चाहिए और सबको उन्नति के समान अवसर देना चाहिए। हां इस दिशा में जिसे ज्यादा संसाधन और सहूलियतों की दरकार है उन्हें वह मिलना चाहिए। इसे ऐसे देखें, मान लें एक चिकित्सक अपने कक्ष में बैठा मरीज देख रहा है। इसी बीच कोई इमरजेंसी आ जाए तो वह रूटीन के मरीजों को छोड़कर निश्चित ही उसे अडेंड करेगा। यही हाल उन जातियों की भी है जो समय के साथ कदमताल नहीं मिला सकीं अथवा जिन्हें दबंगों व जालिमों ने आगे बढ़ने नहीं दिया। अच्छाई- बुराई को किसी एक जाति, समाज अथवा राष्ट्र से जोड़कर नहीं देखना चाहिए। यह आपको हर जगह मिलेगी। मैं अपने कई आईएस या संपन्न दलित मित्रों को देखता हूं। उनका व्यवहार गांव के दलितों से उसी तरह का होता है जैसा इतर जातियों का। मैने तो किसी संपन्न ब्राह्मण को भी भीख मांग कर जीवन यापन करने वाले ब्राह्मण से गलबहियां करते नहीं देखा है। जातियों के बीच जो खाई पैदा हुई उसमें भी एक बड़ा कारण आर्थिक है।      

       आइए फिर आते हैं भारतीय जाति व्यवस्था की खूबियों पर। हमारी जाति व्यवस्था  जितने कुशल काष्ठकार, लौहकार,  स्वर्णकार, चर्मकार और अन्य विधाओं के विशेषज्ञ और  तकनीशियन पैदा करती है, उसका कोई जोड़ नहीं है। एक सच्चाई यह भी है  कि  विश्व के समस्त तकनीकि संस्थान मिल जाएं शायद तब भी इतने दक्ष और कुशल कारीगर वे  न पैदा कर सकें। यह व्यवस्था ही हमें रोजगार देती है, बिना किसी अतिरिक्त शिक्षण- प्रशिक्षण के। आप देखिए एक स्वर्णकार का लड़का बिना किसी प्रशिक्षण अपने पारिवारिक परिवेश से सीखता हुआ ऐसे आकर्षक आभूषण डिजाइन करता है जिसकी सामान्य व्यक्ति कल्पना भी नहीं करता। यदि उसे और बेहतर संसाधन उपलब्ध काराए जाते तो उसके कल्पना के उड़ान का सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है। हां, माफ करिए, मेरा यहां यह आशय कत्तई नहीं है कि स्वर्णकार के बालक में यदि आईएएस, आईपीएस, इंजीनियर और डाक्टर बनने की क्षमता है तो भी उसे आभूषणों की ही दुनियां में खपा दिया जाए। उसकी या किसी भी जाति के जातक की  प्रतिभा को भरपूर सम्मान मिलना चाहिए। मैं नहीं समझ पाता जाति व्यवस्था को गाली देकर यह काम कैसे होगा।    कल्पना करिये जातीय कुशलता से पैदा होने वाले  ये रोजगार नहीं होते तो भारत में बेरोजगारी की क्या हालत होती। यहां यह भी बता दूं कि हमारे यहां बेरोजगारी की अवधारणा भी काफी हास्यास्पद है। यहां रोजगार माने सरकारी नौकरी से ही लोग मानते हैं। जहां अपेक्षाकृत काम कम, हरामखोरी ज्यादा होती है। अपने काम धंधे में लगे लोग और अपने जातीय रोजगार से परिवार पाल रहा युवक भी अपने को बेरोजगार ही मानता है। कुछ सरकारी नौकरी का आकर्षण ऐसा है कि दूसरा काम करने वाले भी अपने को बेरोजगार की श्रेणी में ही मानते हैं। इसे आप गंवई सोच भी मान सकते हैं। लेकिन सच्चाई यही है। अमीर-गरीब, बुद्दिमान-बेवकूफ, सुख-दुख यह सब जीवन की सच्चाई है। नाहक जाति व्यवस्था को गरियाने की जरूरत नहीं है। इसे और मजबूत करने की जरूरत है। इससे प्रेम और सद्भाव बढ़ेगा वैमनस्यता नहीं। जाति की वर्जनाएं तो हर काल में टूटती रही हैं आगे भी टूटेंगी लेकिन यह सब अपवाद है। जो व्यवस्था आपको युगों- युगों से जीवित रखे हुए है उसकी कुछ तो खासियत होगी।  उसकी अच्छाइयों पर नजर डालिए। सार-सार को गहि रहें, थोथा देहि उड़ाई। काम इस दिशा में होना चाहिए। जाति गणना का पक्ष और विरोध तो लोग अपने -अपने राजनीतिक मुफाद को ध्यान में रखते हुए कर रहे हैं। जाति आधारित जनगणना में कुछ भी बुरा नहीं है। बशर्ते इसके स्वस्थ्य पहलुओं को ध्यान में रखा जाए।हां,  केवल पंडित के घर पैदा होने से कोई ज्ञानी नहीं हो जाता।   पूजहूं विप्र सकल गुणहीना वाली स्थिति नहीं होनी चाहिए। जाति कोई हो व्यक्ति -व्यक्ति में भेद नहीं होना चाहिए। उसके गुण के आधार पर उसका सम्मान होना चाहिए।

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